भारत में आयुर्वेद एक प्राचीन चिकित्सा पद्धति है, जो प्राकृतिक उपचारों और जड़ी-बूटियों पर आधारित है। हालांकि, इस महान पद्धति को पूरी तरह से प्रमोट करने के लिए हमारी सरकारों ने कभी भी सटीक और प्रभावी कदम नहीं उठाए। आजकल, भारत में ज्यादातर लोग खाद्य पदार्थों की खेती करते हैं, जबकि जड़ी-बूटियों की खेती के लिए उचित तकनीकी जानकारी और प्रशिक्षण की भारी कमी है। इस कारण आयुर्वेद को बढ़ावा देने के बजाय, इसे कई बार गलत तरीके से पेश किया जाता है।
आयुर्वेद को व्यवसाय बनाने की प्रवृत्ति
कुछ कंपनियां आयुर्वेद को केवल एक व्यावसायिक उपकरण के रूप में उपयोग कर रही हैं। वे कम गुणवत्ता वाली दवाएं बनाकर मार्केट में बेचती हैं, जो आयुर्वेद के वास्तविक सिद्धांतों से बहुत दूर होती हैं। उदाहरण के लिए, चवनप्राश को लीजिए, जिसे महर्षि चवन ने पहले तैयार किया था। इस चवनप्राश में अष्टवर्ग औषधि का उपयोग किया गया था, जो अब भारत में लगभग लुप्त हो चुकी है। लेकिन आजकल, बाजार में उपलब्ध चवनप्राश में चीनी और आंवला का मिश्रण होता है। कंपनियां दावा करती हैं कि इसमें सोना और चांदी मिलाए गए हैं, लेकिन महर्षि चवन ने कभी अपनी औषधि में सोना और चांदी नहीं डाला था। क्या उस समय भारत में सोने और चांदी की कमी थी? इसका उत्तर स्पष्ट है कि उस समय इनकी आवश्यकता नहीं थी, इसलिए इन्हें औषधि में नहीं डाला गया था।
कंपनियां आज आयुर्वेद को एक व्यापारिक साधन बना चुकी हैं, जिसका उद्देश्य सिर्फ पैसा कमाना है। लेकिन आयुर्वेद का असली उद्देश्य मानव कल्याण है, न कि व्यावसायिक मुनाफा।
आयुर्वेद और एलोपैथी की तुलना
आधुनिक जीवनशैली में लोग जल्द से जल्द इलाज चाहते हैं और यही कारण है कि एलोपैथी का प्रचार और उपयोग बढ़ा है। एक गोली खाकर तुरंत आराम पाना और बीमारी का तुरन्त गायब होना, यह एलोपैथी की विशेषता है। लेकिन आयुर्वेद की चिकित्सा में समय और समर्पण दोनों की आवश्यकता होती है, जो आज की तेज-तर्रार जिंदगी में सबके लिए संभव नहीं हो पाता। आयुर्वेद में इलाज की विधियां अत्यंत प्रभावी हैं, लेकिन इसके लिए धैर्य और समय की आवश्यकता होती है।
आयुर्वेद में ज्ञान का प्रसार
आयुर्वेद में इलाज के बहुत से तरीके होते हैं, जिनका पालन करना आज के समय में मुश्किल हो सकता है। इसके साथ ही, आयुर्वेद में ज्ञान का प्रचार-प्रसार भी बहुत कम है। अधिकांश लोग अपने ज्ञान को अपने तक ही सीमित रखते हैं। जबकि एलोपैथी में सरकार द्वारा रेगुलेशन और मार्गदर्शन होता है, आयुर्वेद में ऐसा कोई प्राधिकृत ढांचा नहीं है, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि इसे सही तरीके से लागू किया जा रहा है। इसके कारण, कई बार गलत जानकारी और प्रथाएं सामने आती हैं।
जड़ी-बूटियों की पहचान की समस्या
आयुर्वेद में एक और बड़ी समस्या जड़ी-बूटियों की पहचान और उनका सही उपयोग है। एक ही पौधे की कई प्रजातियां हो सकती हैं, और यह जान पाना कि कौन सी प्रजाति का उपयोग लाभकारी होगा, यह काफी कठिन है। सही जड़ी-बूटी का चयन और उसका सही हिस्सा उपयोग करने के लिए गहरी समझ और अनुभव की आवश्यकता होती है।
आयुर्वेदिक कंपनियों की चुनौतियां
जो कंपनियां आयुर्वेदिक दवाएं बनाती हैं, वे अक्सर सस्ते निर्माण प्रक्रियाओं का पालन करती हैं, ताकि वे कम लागत में अधिक लाभ कमा सकें। जबकि प्राचीन आयुर्वेदिक विधियों से दवाएं बनाना महंगा होता है और इन विधियों से बने उत्पादों की आपूर्ति करना मुश्किल हो सकता है। यही कारण है कि बाजार में उपलब्ध आयुर्वेदिक उत्पादों की गुणवत्ता में उतार-चढ़ाव देखने को मिलता है।
सरकार का प्रयास और आयुष दवाखाना
हालांकि, अब भारत सरकार ने आयुर्वेद को बढ़ावा देने के लिए कुछ कदम उठाए हैं। जैसे आयुष दवाखाना की स्थापना, जहां लोग आयुर्वेदिक इलाज और दवाओं के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। यह एक सकारात्मक कदम है, लेकिन सरकार से अनुरोध है कि वह आयुर्वेद के प्रचार-प्रसार के लिए और भी ठोस कदम उठाए, ताकि लोग इस महान पद्धति से लाभ उठा सकें।
निष्कर्ष
आयुर्वेद का असली उद्देश्य मानव स्वास्थ्य को बेहतर बनाना है, और इसके प्रचार-प्रसार के लिए सरकार की सक्रिय भागीदारी जरूरी है। जब तक सरकार जड़ी-बूटियों की खेती को बढ़ावा नहीं देती और आयुर्वेद को सही तरीके से प्रमोट नहीं करती, तब तक इसकी असली शक्ति और लाभ आम लोगों तक नहीं पहुंच पाएंगे। इसलिए, सरकार को आयुर्वेद के बारे में जन जागरूकता बढ़ानी चाहिए और इसे स्वस्थ जीवन का हिस्सा बनाना चाहिए।